Saturday, June 15, 2013

Round 1 (Match # 6) - Mohit Sharma vs. Yogesh Amana Gurjar


*) - नारीत्व
(#6 - Mohit Sharma)
 
अजीब है ना कुछ बड़ी घटना होने पर आँखों के सामने बना और चल रहा परिद्रश्य कितना धुँधला लगता है। आज वो अंधी भिखारन कबसे पुलिस क्वाटर के बाहर आवाज़ लगा रही थी जिसे अक्सर ईला यूँ ही बातें करती थी और खाना खिलाती थी। सख्त गर्मी के बाद पहली बारिश हो रही थी जिसका उसे कबसे इंतज़ार था, आस-पास सूखे पेड़ पौधे अचानक से नहा-धो कर ताज़ा हरे से हो गए थे। रेडियो पर उसकी पसंद का कार्यक्रम आ रहा था पर हाथ में थमे अपने बर्खास्ती  पत्र के सामने यह सब जैसे कहीं दूर किसी और की दुनिया का हिस्सा लग रहा था।

ईला के ज़हन में लगभग दो साल पहले की यादें चलने लगी जब वो उत्तर प्रदेश के 1982 बैच की 38 महिला पुलिस कर्मियों में से एक थी और अपनी ट्रेनिंग पूरी कर पुलिस की वर्दी पहन अपने गाँव गयी थी। शेर आ जाने पर जैसे हिरण, खरगोश  जस के तस "स्टेचू" सा बन जातें  है वैसे पूरा गाँव ही थम गया। पिता जी चमेल पंडित तो ख़ुशी के मारे छोटे बच्चों की तरह हरकतें कर रहे थे और सवाल पूछ रहे थे, माँ के गुजरने के बाद पिता जी के जीने का सहारा ईला ही थी। उसकी दो छोटी बहन कोमल और दीक्षा ने भी अपनी बारहवी और सातवी की परीक्षा दी थी। पिता ने जैसे तैसे ईला को काबिल बनाने मे अपनी ज़मीन, पूँजी गवाँ दी अब ईला को दारोगा बने देख कर उन्हें अपने बलिदान सार्थक लग रहे थे। घर के बाहर मेले जैसी भीड़ लगी थी, आस-पास के गाँवों से भी लोग लड़की दारोगा को देखने आ रहे थे। थोड़ी देर बाद पिता जी ने अपनी इच्छायें रखी।

चमेल - "ईला बेटे एक तो पुराना जमींदार है उसके यहाँ जीप लेके डंडा फटकार आ, कम से कम उसकी खिड़की-किवाड़ तोड़ आइयो, करमजला कहता फिरता था की मैंने अपनी बेटी खुद ही शहर भगा दी। कोमल की बारहवी हो गयी है इसको भी शहर ले जा और अपनी तरह कुछ बना दे, घर की मरम्मत करवा दियो और बेटी एक पट्टे वाली बड़ी घडी दिलवा दे मुझे!"

ईला - "ठीक है पिता जी सब कर दूँगी ...पर एक महीने की तनख्वा के हिसाब से आप कुछ ज्यादा लालच नहीं दिखा रहे? हा हा ...और बड़ी दीवार घडी? वो क्यों चाहिए?"

चमेल - "बेटा देख मै तो अनपढ़ हूँ, घड़ी माथे पर बांध लूँगा जिसको समय देखना आता होगा उसी से पूछ लूँगा की भैया क्या बज रहा है? कहने को भी हो जायेगा बिटिया ने कुछ बड़ा तोहफा दिया है।"

इन दो सालों  मे ईला ने अपने वेतन से जो घर भेजा वो पिता के लिए कर्जो के आगे काफी कम था अभी घर को तारने मे उसे कुछ साल और लगने थे क्योकि वो अपनी ड्यूटी ईमानदारी से कर रही थी जो सरकारी विभागों खासकर पुलिस मे कम देखने को मिलता है।
 
ईला की पहली नियुक्ति हुई संजयनगर जिले और आस-पास के क्षेत्रो के एकमात्र महिला थाने मे। संजयनगर कोतवाली के थाना प्रभारी थे इंस्पेक्टर सुमित कुमार। काफी मामलो, अपराधो में संयुक्त जाँच, गश्त, दविशों में सुमित और ईला मिल कर काम करते थे। सुमित एक अनुभवी, प्रोढ़ और ईला की तरह ही कर्तव्यनिष्ठ थाना निरीक्षक थे कुछ ही महीनो में ईला ने उनसे बहुत कुछ सीखा था और दोनों थानों ने मिलकर कई अपराधिक एवम पारिवारिक मामले सुलझाये थे। पुलिसिया भाग दौड़ में कैसे इतने महीने गुज़र गये पता ही नहीं चला। 

एक रात दहेज़ उत्पीडन के एक मामले में ईला अपने सहकर्मी सुमित, उनके 2 सिपाही और अपनी 2 महिला आरक्षी के साथ संजयनगर के क्षेत्र मे एक गाँव बिधोली पहुँची। गाँव के बाहर गेंहू की फसल से घने खेतो में डेरा जमाये कुछ बदमाशो के एक गिरोह को पुलिस जीप देख कर यह उनके लिए की गयी दबिश है। गाँव में घुसने से पहले ही पुलिस जीप पर फायरिंग शुरू हो गयी। इस अप्रत्याशित हमले में गाडी चला रहे सिपाही कुलदीप के हाथ में गोली लगी और जीप असंतुलित होकर कच्चे रास्ते से डगमगा कर पलट गयी। सुमित ने जीप से निकल कर ईला और बाकी साथियों को निकाला। ईला को मामूली चोटें आयी थी पर जीप पलटने से पहले बदमाशो द्वारा चलायी गयी गोलियों से पीछे बैठी दोनों महिला सिपाही घायल हो गयी थी, एक गोली इंस्पेक्टर सुमित के कंधे पर लगी थी।
 
स्थिति विकट थी, पारिवारिक मामला समझ कर हथियारों की इतनी ज़रुरत नहीं समझी इस पुलिस दल ने। अब सिर्फ एक सिपाही की राइफल, इंस्पेक्टर सुमित कुमार और ईला की अपनी-अपनी रिवाल्वर थी। सुमित का पहला सवाल था।
 
"चल पाने की स्थिति मे कौन-कौन है?" 

ईला के अलावा एक पुरुष आरक्षी नितिन भी ठीक हालत मे था। सुमित का अगला निर्देश था।
 
"वायरलेस टूट गया है। गाँव इस बाग़ के रास्ते से डेढ़ मील दूर है, ईला जी और कांस्टेबल नितिन आप दोनों अपने कंधो पर दोनों घायल महिलाकर्मियों को लेकर जायेंगे और उनके इलाज का इंतज़ाम करने के बाद ही लौटेंगे। ग्राम प्रधान या किसी जमींदार के पास बंदूकें हो तो लायेंगे। वैसे ड्राईवर कुलदीप भी घायल है पर कपडे से खून रुक गया है और इसकी नब्ज़ ठीक है।"

सुमित का बायाँ हाथ अजीब तरह से मुड़ा था और ईला बता सकती थी की वो जीप के भार से बीच मे से टूटा है, ऊपर से कंधे मे लगी गोली। पर अपने दल का मनोबल न टूटे इसलिए सुमित किसी पीड़ा का निशान तक नहीं दिखा रहा था। ईला कुछ पलो तक जैसे मूरत बन अपने आदर्श, गुरु को देखती रह गयी।
 
 ईला - "लेकिन सर आप??"

सुमित - "अभी के लिये मै ठीक हूँ, आप अपनी रिवाल्वर निकाल कर रखियेगा, यहाँ और बदमाश भी हो सकते है। हम दोनों आप लोगो को कवर फायर देते है।"
 
मन के अंतहीन प्रश्नों से गुथमगुत्था ईला अपने ऊपर एक महिला कांस्टेबल को टाँगे दौड़ पड़ी। गाँव में ईला और नितिन ने प्रधान के घर पर घायलों को छोड़ा और गाँव मे उनको केवल एक देसी दुनाली और उसकी दो गोलियाँ मिली। दोनों को लौटने में एक घंटा लग गया। पुलिस पार्टी अपने तीनो हथियारों की गोलियाँ ख़त्म हो चुकी थी, सुमित अपने अंदाजों से 3 बदमाश मार चुका  था। अब सिर्फ दुनाली और उसकी दो गोलियों की वजह से ओट में छिपे रहने के अलावा कोई चारा नहीं था। लगातार 4 घंटो तक दोनों तरफ से कोई गतिविधि नहीं हुई, आख़िरकार अपना दर्द कम करने के लिये और अपना ध्यान बँटाने के लिये लेटे  हुए सुमित ने बीडी सुलगायी। पर कभी-कभी अनुभव में भी चूक हो जाती है अँधेरे में बीडी की चमक देख बदमाशों ने उस दिशा में कुछ गोलियाँ चलायी जो सुमित के सर को भेद गयी और सुमित की मृत्यु हो गयी। 

लगभग हमेशा बदमाश पुलिस से मुतभेड टालना ही बेहतर समझते है और मुतभेड होने पर जल्दी ही स्थिति से निकलने कि कोशिश करते है। पर ये सगे-संबंधियों का गिरोह था जो अपनों के मर जाने पर बदला लेने की इच्छा से घंटो डटा हुआ था। बदमाशो को अंदेशा हो चुका था की पुलिस दल की गोलियाँ ख़त्म हो चुकी है, अपनी जीप को वापस पलट रही ईला और दोनों सिपाहियों पर बचे हुए 3 बदमाशों की गोलियों की बौछार सी हो गयी। दोनों सिपाही वहीँ गिर पड़े और वापस पलटी जीप के बीच मे ईला दब गयी उसकी जांघ को छू कर एक गोली निकली थी। निडर बदमाश अब बढ़ते दिखायी दे रहे थे ईला ने अपनी पूरी इच्छाशक्ति जुटा कर कुछ दूर पड़ी दुनाली तक हाथ पहुँचाया और उसको चलाया, दुनाली जाम हो गयी थी या शायद बाबा आदम के ज़माने की दुनाली अब चलने की हालत मे नहीं थी। देसी हथियार कब चल जायें और कब धोखा दे जाये कुछ कहा नहीं जा सकता।  वैसे ईला ने गाँव वालो से शहर संदेश भिजवाने को कहा था पर मदद आने मे घंटो लग जाने थे। गाँव वाले भी डर से इस और नहीं आने वाले थे। इधर वो तीन बदमाश मौके का जायजा लेने लगे।
 
"लड़की? पुलिस में लड़की?"

"अबे वो सीता और गीता मे लड़की भी तो पुलिस थी!"

"अब इसको कैसे मारें? हमारी गोलियाँ भी ख़त्म?"

"अबे! लड़की है इसको मारने की क्या ज़रुरत है ..हा हा हा!!!"

फिर तीनो बदमाशो ने जीप से ईला को खींच कर उसके साथ सामूहिक बलात्कार किया। अपने और अपने साथियों के खून की गंध, अपनी आँखों से अपने शरीर से अलग होती वर्दी देखने की बेबसी, सामने सर खुली अपने आदर्श इंस्पेक्टर सुमित की लाश, और इतने दर्द के बीच अपने शरीर और आत्मा का चीरहरण। दुनिया कहती है नारी एक पहेली है पर आज ईला को पुरुष के रूप चौंका रहे थे, एक तरफ निर्जीव पड़े सुमित, कुलदीप, नितिन और एक तरफ उसके नग्न शरीर से खेलते ये 3 दरिन्दे। कुछ देर के लिये ईला अपनी मानसिक और शारीरिक वेदना से अचेत हो गयी। बदमाश उसको मरा समझ भाग निकले। ईला होश मे आई तो उसने खुद को संभाल कर वर्दी पहनी और साथियों पर नज़र डाली। सुमित तो पहले ही मर चुके थे पर नितिन और कुलदीप की साँसें चल रही थी।

ईला ने अपनी पूरी ताकत झोंक कर किसी तरह जीप को खड़ा किया। तुरंत दोनों सिपाहियों को जीप मे डाला। जीप की हालत ठीक थी। ईला जीप चलाकर गाँव से निकली और काफी दूर उसे वो बदमाश जाते दिखे, ईला ने ढलान पर जीप बंद कर दी और पीछे से उनके पास पहुँचते ही जीप स्टार्ट की, ईला के मन में उन तीन दरिंदो के विरुद्ध आक्रोश बहुत था पर इस घड़ी में भी अपना मानसिक संतुलन ठीक रखते हुए सधे कोण से जीप चलाने से तीनो बदमाश जीप के नीचे आ गए जिनमे से एक मरा हुआ जीप से घिसटता हुआ कुछ दूर तक गया और बाकी दो घायल होकर वहीँ गिर पड़े। ईला के पास समय कम था तो वो सभी बदमाशो को मरा  समझ वहाँ से निकल गयी।

शहर पहुँचने पर ईला ने दोनों सिपाहियों को अस्पताल भर्ती कराया और कण्ट्रोल रूम सूचना दी जिस से जिले मे हडकंप मच गया और भारी संख्या मे पुलिस बल बिधोली के लिए रवाना किया गया। कुलदीप को उठवाते वक़्त उसकी गर्दन एक और झूल गयी और अब तक दृद खड़ी ईला की आँखें अपनी बेबसी पर नम हो गयी। वो खुद को दोष देने लगी की उसने जीप सीधी करने मे कितना समय लगा दिया, वो कुलदीप को बचा सकती थी।

अपने मेडिकल में ईला ने अपनी बाहरी चोटों का ईलाज करवा लिया पर खुद से आँखें चुरा कर अपने बलात्कार की बात छुपा ली। मौके पर पहुँची पुलिस को मृत सुमित कुमार और गंभीर रूप से घायल महिला आरक्षी मिली। खेत मे मरे बदमाशो की लाशें मिली पर ईला की जीप से कुचले गये बदमाश नहीं मिले, शायद वो दोनों अपने साथी को उठा ले गए। दूसरा सिपाही नितिन जिंदा बच गया पर सर पर लगे आघातों से उसके शरीर को लकवा मार गया और वो कुछ बोलने तक की हालत मे नहीं बचा।

ईला जाँच मे पूरा सहयोग दे रही थी पर वो अन्दर से टूट चुकी थी। अपने ऊपर हुए अत्याचार को छुपाने की वजह से वो खुद से भी नज़रे नहीं मिला पा रही थी। संजयनगर के एक नेता को इस मामले मे राजनैतिक मौका दिखाई दिया, उसने शहीद सुमित कुमार के परिजनों को लेकर ईला के घर और थाने के बाहर अपने समर्थको की भीड़ के साथ धरना दिया और सीधे आरोप लगाये की ईला ने जान बुझ कर इंस्पेक्टर सुमित कुमार की मौके पर मदद नहीं की क्योकि ईला एक पंडित थी और सुमित कुमार एक हरिजन, बाकी दो सिपाही भी हरिजन थे जिसकी वजह से ईला उनका साथ छोड़ अपनी सुरक्षा के लिए मौके से भाग गयी या छुप गयी। वो मौके पर छुपी रही और बदमाशो के जाने का घंटो इंतज़ार करती थी, बदमाशो के जाने के बाद ही हरकत मे आकर ईला ने उन्हें बचाने की खानापूर्ति की। शक की कुछ जायज़ वजहें थी जैसे उस नेता ने दलील दी की ईला को कोई गंभीर छोट नहीं आई अपने बाकी साथियों की तरह। ईला द्वारा ग्राम प्रधान से मांगी गयी दोनाली जो उस वक़्त जाम हो गयी थी अगले दिन पुलिस दल द्वारा चेक करने पर कैसे चल गयी?

जब इन आरोपों का ईला को पता चला तो उसका शरीर, मन सुन्न पड़ गया, वो कांपने लगी। ये डर, गुस्सा या दुख नहीं था, यह एक हार का एहसास था की अपनी पूरी कोशिश के बाद भी, इतने बलिदान के बाद भी, सब कुछ हमेशा के लिए बदलने के बाद भी हार…ईला को अपने सहकर्मियों के नाम के अलावा उनके बारे मे कुछ पता नहीं था न उसने कभी कुछ जानना ज़रूरी समझा..खुद को इतना अकेला कभी नहीं पाया ईला ने, हर ओर से ताने, कटाक्ष यहाँ तक की उसकी अपनी अंतरआत्मा भी उसको दुत्कार रही थी।

वैसे पुलिस विभाग मे भी ये बातें दबी जुबान में चल रही थी। ईला पर पुलिस विभाग और मानवाधिकार आयोग की संयुक्त जाँच बैठाई गयी। कुलदीप मर चुका था, लकवाग्रस्त नितिन कुछ बोलने की हालत मे नहीं था और दोनों महिला कर्मियों के बयान जीप पलटने और गाँव आने तक थे। मौके की चश्मदीद और इस जाँच मे आरोपी सिर्फ ईला थी। संवेदनशील मामला होने के कारण और ईला के पक्ष मे कोई सबूत ना होने की वजह से ईला को ड्यूटी मे लापरवाही बरतने और अपने साथियों की जान न बचाने के आरोप मे बर्खास्त कर दिया गया। अख़बार, जनता, सहकर्मियों और शीशे में अपनी घृणा भरी नज़रें ईला को रोज़ गोलियों की तरह भेद जाती थी।

ईला अपनी असीम वेदना छुपाकर एक साल ये मामला लडती रही और आख़िरकार हारकर उसने आत्महत्या कर ली। पंडित परिवार पर तो जैसे विपदा आ गयी, बेटी के कूकर्मो का हवाला देकर गाँव से सामाजिक बहिष्कार तो पहले ही हो गया था अब घर का सहारा भी उनका साथ छोड़ गयी। ऊँचे सपने देखने के लिये चमेल पंडित खुद को दोष देने लगा। खेत और जमा-पूँजी जा चुकी थी अब कोई दिन जा रहा था जो शायद ये परिवार भी अपना जीवन समाप्त कर लेता की तभी एक दिन उनके दरवाज़े पर दस्तक हुई, दरवाज़ा खुला ....ये कांस्टेबल नितिन था जो अब आंशिक रूप से ठीक हो चुका था पर अभी भी बोल नहीं पाता था पर चमेल के सामने उसकी आँखें ही इतना बोल रही थी की जुबान की ज़रुरत ही नहीं पड़ी। नितिन ने परिवार की उस संकट की घड़ी मे आर्थिक मदद की और उन्हें अपने साथ ले आया। नितिन के घर मे बने पूजा घर भगवानो, देवियों मे एक तस्वीर ईला की भी थी, नितिन ने अधमरी अवस्था में सब कुछ देखा था ...एक देवी का हर बलिदान देखा था जिसकी वजह से आज वो जिंदा था।

समाप्त!

Note - Mai jaanta hun word limit exceed kar di hai par mera pehla maksad tha ki log ye poori kahani padhe, haar-jeet ki baat yahan nahi thi. Aur mere kuch critics k liye jinhe lagta hai mai sirf ek tarfa social activism karta hun. 


Rating - 97/100 

(Word Limit Penalty for 395 extra words - 5+5+5+5 = 20)

Final Rating - 77/100 

 Judge's Comment - This made my day, week, month......One of the best stories I have ever read. This is very well structured, explanations and descriptions, tone is just spot on the whole way through! You had me crying with this one, a tearjerker and the positive ending just made me smile.  Fascinating sub plots, ideas and plotline. The backdrop, endless struggle of brave Ila. I am habitual of rating out of 5 and this is a 5/5 story for me but this 100 scale gives some scope and her suicide is the reason I deduct 3 points. I look forward to reading more of your works in the future.


 *) - छाँव पीपल  की

(# 59 - Yogesh Amana Gurjar)
 

थकान भरे सप्ताह के बाद ....एक छुट्टी का दिन ... आह ! आज रिलेक्स मूड था सोचा
 किताबो की अलमारी साफ़ कर ली जाये  .. मै किताबों को उलट पलट रहा था ..  कि  सहसा लाल रंग के कपडे में लिपटी वो किताब नज़र आई .. जो गुरूजी ने गाँव में आठवी कक्षा में सबसे ज्यादा नंबर लाने पर उपहार दी थी ....हिंदी शब्दकोश
 
पत्ते पलटे तो.. अचानक उनके बिच रखा वो पीपल का पत्ता दिखा ...हाँ वो पत्ता जिसने मुझे एक नयी राह दिखाई थी I उस पीपल के पत्ते को हाथ में लेकर मै धीरे- धीरे यादों की धुंध में खोता चला गया   .. हाँ  वो दिन आज भी दीखता है स्पष्ट सा  I
मेरा बिछोना मै हमेशा खिड़की के पास लगाता था ..जहां से गाँव की चौपाल ...
और घर से लगा शिव मंदिर दीखता था I

और जब भी सुबह आँख खुलती तो मै अक्सर देखता ..दादी उस पीपल के पेड़ पर जल चढाती और शिव पंचाक्षर मन्त्र बोलती जाती ..शिव मंदिर की घंटी गूंजती ... हाँ पुरे गाँव का पूजनीय,प्रिय सबसे बूढ़ा पेड़ ...दादा अक्सर कहते " रे छोरों ! ये पेड़ तो पुरे गाँव का दद्दा है ..कई पीढ़ी इसकी छाया मे पली बढ़ी है "
..इस पीपल की एक डाल मेरे घर के अहाते मे आती थी और दूजी पड़ोस मे रहीम चाचू के आँगन में ...जो गाँव के सरपंच भी थे I

मुझे और गाँव की पूरी वानर सेना को   वो पीपल का पेड़ ...अपना सखा सा लगता I उसकी छाँव में अक्सर हमारा जमघट रहता ..सतोलिया ,कंचे ,लंगड़ी ,कब्बडी सभी  वंही तो ..और रात गहराई तो चोर सिपाही भी खेलते वंही के वंही ...मंदिर की आरती के बाद प्रसाद के लिए लाइन लगाना ..और दादी की डांट.."सीधे रहो रे बावरों "

सुबह पहली किरण से जगता और यही रोज का सुकून देता नजारा दीखता ... पर जब मै उस पूनम के अगले दिन जगा तो मंदिर की घंटियों से ज्यादा एक अजीब सा कोलाहल सुनाई पड़ा .. सावन लग चूका था ..हलकी हलकी रिम झिम की सोंधी गंध को महसूस करता मैने खिड़की से झाँका की क्या हुआ है ...ये आवाजे है क्या .... घने काले मेघ छाए थे ..अस्पष्ट सा दिखाई दे रहा था ...आवाजें रहीम चाचू के घर से रही थी ..किलकारियां ...गाँव की वानर सेना आँखे फाड़े विस्मय से कुछ देख रही थी ...मैने उनकी निगाहों का पिछा किया देखा ...आँगन की गीली होती मिटटी मै कुछ रंगबिरंगी आकृति दोड़ रही है ...सर्राट ...मै और झुका देखने को ...माँ रम्भा को घास देती चिल्लाई  बोली ..." गिरेगा क्या ...चल परे रह ..सब काम छोड़ इनका ध्यान रख्खो बस "मैने देखा रहीम चाचू की पोती जो शहर से आई है ...इस बार फिर कुछ मशीनी खिलौना लाई है ...मै भी जल्दी दोडा देखने ...दो दो सीढियाँ साथ फलांगता ...

दादी चिल्लाई ..." दोड़ मत गिरेगा ...रे छोरे"पर मै झट बस पहुंचा वंहा ..."देख रे चंदनिया हिलोर शहर से मशीनी गाड़ी लाई है ..."कार " कार बोले है इसको "मेरा दोस्त मदनु बोला ..."कित्ती मस्त दोड़ री एकदम असली रे " रामू भी बोला .. मेरा मन भी ललचा गया ...ऐसी की ऐसी देखि तो थी मैने शिवरात्रि के मेले में बाबा से कहा ...पर बड़े ज्यादा दाम थे इसके ....मै इसे अब तक भूल पाया था ..काश ...... मै हिलोर से बोला ..."री हिलोर तनिक हमें भी तो खेलने दो ..कैसे चलती ये ...हाथ मै डिब्बा सा क्या ये ...इससे कैसे चलाती तुम..??." और हिलोर इतराई ...बोली ..."नहीं नहीं बड़ी महंगे पाड़ की है ...बाबा डाटेंगे मेरे को ...तुम सब दूर से देख लो बस .."  घमंडी कंही की....पिछली बार आई हम ने इसको खूब बाड़ी  के पके आम तोड़ -तोड़ के खिलाये थे ...अहसान फरामोश .. पूरी अंग्रेज इसके बापू की तरह ...

उस रात पर नींद रम्भा के नए जाये बछड़े सी ऐसी बिदकी  की बस ..आँखों में तो बस वो रंगबिरंगी मशीनी गाडी  ...नहीं नहीं कार ...कार दोड़ रही थी जूमम्म्म ..जूमम्म्म ..

रात को सब खेल रहे थे बाहर पर मै उस गाडी  के बारे मै सोच रहा था ...पता नहीं कब रात के ग्यारह बज गए ...मैने यु  ही रहीम चाचू के घर की और देखा ...सब सो चुके थे ...पर वो क्या उनके बरामदे मे ..क्या .?? रे ..!! वही हाँ वही तो...वो कार पड़ी थी ...उसके जादुई डिब्बे के साथ ...

और तभी ..मेरे मन मै ..कुछ ...विकृत सा ..आया ...सब सोये है ...और वो कार ..सपनों की कार ..पड़ी है यु ही वंहा ...ले -ले ..मत डर ..है कोन जो..सब तो सोये पड़े है ..हाथ कांप रहे थे ..और ..और ..गला सुखा जा रहा था ..किसी ने देख लिया तो फिर ?? नहीं ...कोन देखेगा इत्ता अँधेरा हुआ है ..

मै धीरे- धीरे ..सीढिया उतरा ...रम्भा ने सर उठाया ..सोई नहीं थी ...उसकी आँखे मुझे घुरने लगी ..मैने ध्यान नहीं दिया ...आगे बड़ा देखा ..सभी सोये है ...मैने पीपल की डाल का सहारा लेके दिवार फांदी..और उस पार ...दिल तो जेसे कुए की रहट सा घड घड दोड़ रहा था ..

तभी कुछ जोर की आवाज हुई ...टन टननान ..कुछ बरतन गिरा..सबीना चाची की आवाज आई " या अल्लाह ..कौन है वंहा !!" और मै ...मै पसीने से नहा सा गया ...मर गया अब ...मैंने केले की बाड मै खुद को छुपा लिया ...तभी रहीम चाचा बोले .."सोजा वही कजरी बिल्ली होगी ...नाक मै दम कर रखा है .. नासपीटी ने "
और रहीम चाचा उस समय मेरे को बहुत अच्छे लगे ..एकदम प्यारे ...बच गया..फिर बस मै ..उस कार तक पंहुचा और उसको उठाते ही ...बस लपका घर की और  ...जित्ता जल्दी हो सके मै अपने कमरे मै सुरक्षित पहुंचना चाहता था . और मेरी ख़ुशी का ठिकाना नहीं था ...मुझे वो मिल गया था ..जिसकी कबसे बड़ी चाह थी ..पर मन मै कुछ अजीब सा हो रहा था ..बड़ा अजीब ..

और वो पूरी रात ..जागते कटी..पल पल ..निम् सा कड़वा ....सब ठीक होगा ?? अजीब सा डर ...बैचेनी ...सुबह रम्भा चिल्लाने लगी ...लगा जैसे कह रही हो .."चन्दन चोर है ..चन्दन चोर है"
डरते -डरते रहीम चाचू के घर की और देखा ....हिलोर रो रही थी ...और चाचू उसे दुलार रहे थे ...कुछ बोल रहे थे ...ओह बेचारी ...ये मैंने क्या किया ...पुरे दिन ऐसे  लगा जेसे बहुत गलत हुआ ...और हुआ भी तो ...दद्दा कहते थे चोरी पाप है ...बड़ा पाप ...मैने पाप किया है ...दिल दुखाया है हिलोर का
ये मेरे लालच ने क्या करवा दिया ..पर अब ... अब वापस कैसे  करूँगा ...हुआ सो हुआ ...और देखा भी किसने जो डरूं ..देखा तो है ..रम्भा ने ....और हा पीपल ने ..जिसकी गोद मै खेले ..जिसके देखते बड़े हुए ...दद्दा कहते है ...पीपल साक्षात् विष्णु है ..शाखाएं विष्णु ..ब्रम्हा ..और सभी फल ..सभी देव..सबने तो देखा ...सभी देवो ने देखा है ..छिपा क्या है...दद्दा ने ये भी कहा ..हमारी वज़ह से किसी का दिल दुखे तो सबसे बड़ा पाप है ये तो  ..हमारी संस्कृति मै यही कुछ बाते हमें विश्व मै महान बनती हैऔर ये क्या अधम हुआ मुझसे ...देखो तो पीपल  की पत्तियां  हिल हिल के बोल रही मेरे को ...चन्दन ये गलत है !

पर क्या गलत ...खिलौना ही तो है ...इत्ता बड़ा पाप तो  नहीं है जो..पर क्या करू ?....और.. फिर मै आँगन मै गया पीपल को जल चढाया ...पंचाक्षर मन्त्र बोला और ...आँखे बंद कर ईश्वर का ध्यान कर बोला ..दद्दा कहते आप साक्षात इश्वर है...आप सभी को राह दिखाते ..गुरूजी कहते आप दिन रात हमको प्राणवायु देते हो ...चमत्कारी दीर्घजीवी  हो ...क्या मुझसे वास्तव मै बड़ी गलती हुई तो ...मेरे फेलाए  हाथों मै अपना एक पत्ता गिरा दो ...मै समझ जाऊँगा की मेरे से गलती हुई है ... और जब मैंने आँखे खोली तो देखा ...मेरे हाथ पर एक छोटा पीपल का पत्ता पड़ा है ...

मै समझ गया ...मेरी पलकों से आंसू गिरे ..पश्चाताप के आंसू ...मैने  सोच लिया आज रात को फिर चुपके से कार को ...रहीम चाचा के आँगन मै रख दूंगा ...ताकि हिलोर की हंसी फिर लोट आये  और मेरा पाप बोझ कम हो जाए ..

और वही किया ..अगली सुबह सब ठीक था ..वही मेरा खिड़की वाला सुकून देता नज़ारा ...फिर एक मुस्कान ...पर कंही एक बोझ था अब भी मन के कोने मे...आखिर सोचा दद्दा हा दद्दा से सब कहूँगा ...और तुरंत दोड़कर दद्दा से लिपट गया .."क्या रे छोरे..अब क्या किया ..हाँ  ?

सब बता दिया सब का सब .....दद्दा बोले .." गलती तो की है ..तेणे...पर हाँ अहसास बी हो ग्या तेरे को ..जे अच्छी बात हुई ...और हाँ सुन ये हमारे संस्कार नि है रे ..कुछ पाना हो णा तो ..उस चीझ को पाणे के कई रास्ते होवे है ..अच्छे - बुरे ...पर जे हमें सोचना होता है की कोन्स रास्ता चुने...मेहनत कर एक दिन भगवान सब देगा तेरे को "

और हाँ ...दद्दा सही थे मैने वो रास्ता समझ और चुन लिया ..आज सबकुछ है ..सबकुछ ...हाँ कार भी.. रंगबिरंगी ...असली एकदम  असली ...में अब भी हर रोज़ पीपल को जल चडाता और पूजता हूँ ... क्यूंकि जान गया हूँ ..भारतीय संस्कृति भी पीपल की तरह दीर्घजीवी क्यों है ...कई आक्रान्ता आये राज़ किया ..सब संस्कृतियों को समाते हुए भी हमारी  संस्कृति अक्षुण है ..पीपल की जड़ों सी गहरी ...बहुत गहरी पेठ ..


 Rating - 72/100 

Judge's Comment - Different!!! enjoyed reading it all the way through. I could imagine everything which is definately a good thing. Rajasthani touch It's very powerful, very creative. We must evolve from selfishness to selflessness. a distinct picture and sound in the readers. The voice of the boy - his triumph, remorse, excitement, skepticism. 

Result - # 6 Mohit Sharma wins the match by 5 Points and enters the round of 32. # 59 Yogesh Amana Gurjar goes to Parallel League. 

Judge - Mr. Kshitij Dhyani (Author, Artist and Musician)

5 comments:

  1. आपकी कहानी काफी पसंद आई मोहित भाई ,पसंद तो काफी आई भाई
    लेकिन एक शिकायत रह गयी
    अरे यार कहानिया इतनी डार्क क्यों बनाते हो ? क्या आपने कोई डिप्लोमा किया है क्या डार्क कहानियों पर ? त्रासदी ही त्रासदी क्यों है इतनी आपकी अधिक् तर कहानियों में ? ...अंत तक जिल्लत झेलती हुयी एक इमानदार लडकी जिसे शायद ही कभी खुशियों को महसूस किया हो वह अंत तक तकलीफ सहती रही ,कभी किसी रूप में तो कभी किसी रूप में , मुकद्दर में इतने गम क्यों है भाई ..इमानदारी हमेशा इतनी बेबस क्यों होती है ?

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    1. Deven Bhai, bahut shukriya aapka. Mai ek kisaan ki tarah hun aur mere aam k baagh hai. Ab dikkat ye hai ki abhi tak jo zyadatar kahaniyan, kavitayen, lekh aadi aapne padhi meri likhi wo Dark kism k pedon ki thi...mere baagiche ki baaki prajatiyan bhi chakhiye. :)

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    3. @Pandey..theme dark to hai but mujhe laga ke language and word construction ne uski darkness kam karr di. Tumhe nahi laga??

      Dickensian skill of euphenising according to me!!

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  2. The first story has got the settings of the Indian city, though the poverty in the villages has been very well highlighted. The main show but is the "India Politics". Rape, dowry and ignorance, I believe are the parts of politics. This dirty politics is a world-wide phenomenon. Untouchabilty is another ground touched that could be considered paralel to 'racism'. So must say I didn't see much "Indian Society" in the first story. The story ended with a message "as you sow, so shall you reap" that I really appreciate. At an instance we shall find that there is more that it says. "One good deed done in past might rescue one from the worst adversities" in my words, and as I percept. Ela's bravery, rather humanity touched me. As a story I loved it!! The language construction, proper verbal usage, the structure on paragraphs and dialogues is noteworthy and engrossing. So muah, muah to writer (who doesn't seem his young age :D) !!

    The second story is set in a beautiful Indian village. It has a holy and pleasant environment that makes me feel morning fresh. It touches the holiness of India. T prime religion, rituals of paying respect to plants and animals, childhood in India and some unique little things have been beautifully described. So a part of the society which is unique to India could be found in the work. Lack of variety in punctuations, however, makes reading drowsy. Moreover I find the story somewhat based on "Gandhian Ideology", so won't say that I am very much pleased with the originality.

    Feel lucky to read both the awesome stories :)

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